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अयोध्या फैसला दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है

सत्यमेव .....
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यह लेख श्रद्धेय अरूण कांत जी की पोस्ट ” देश में अमन.चैन बनाए रखने की कीमत मत मांगो  “ जिसमें अयोध्या राममंदिर विवाद को लेकर उच्च न्यायालय के फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया गया है, में दिये तर्कों का विनम्रता के साथ उत्तर देने का छोटा सा प्रयास है । इस लेख में लाल रंग से लिखी गयीं पंक्तियां अरूणकांत जी के तर्क हैं और नीले रंग वाली पंक्तियों मेरा जवाब है ।

देश के अमन.चैन में सेंध लगाने वाले अमन.चैन बनाए रखने की कीमत के रूप में देश के संविधान, धर्मनिरपेक्ष चरित्र . न्याय प्रणाली और क़ानून व्यवस्था की कुर्बानी माँग रहे हैं ।

आपने बिल्कुल ठीक कहा मुल्ला मुलायम सिंह का बयान – ‘मुसलमान अपने को ठगा महसूस कर रहे हैं ।’ आपके कथन को सत्य साबित कर रहा है । जब कि अब तक किसी भी मुस्लिम धार्मिक नेता की टिप्पणी इस प्रकार नहीं आयी है । हां धर्मनिरपेक्षता का पाखंड करने वालों की तमाम टिप्पणियां इस मुद्दे पर आ चुकी हैं जिनके पेट पर इस फैसले से लात पड़ी है ।

दुर्भाग्य से अयोध्या में विवादित स्थल के मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ का फैसला  ।

पहली बार सुन रहा हूं कि अयोध्या मामले पर उच्च न्यायालय के फैसले को किसी ने दुर्भाग्यपूर्ण कहा है । अगर फैसला मस्जिद के पक्ष में आता तब यह दुर्भाग्यपूर्ण न होता । किसी भी मुस्लिम धार्मिक नेता ने कोर्ट के फैसले पर ऐसी टिप्पणी नहीं की पर धर्मनिरपेक्षता का पाखंड करना कुछ लोगों का मौलिक अधिकार है ।

हमारे देश में धर्मस्थल क़ानून है जो 15 अगस्त 1947 की स्थिति को मान्यता देता है ।

इस देश में कानूनों को संसद ने किस तरह से ताक पर रखा है उसके सैकड़ों उदाहरण है । शाहबानों मामला आप अभी तक न भूले होंगे । कानूनो का संशोधन तो हजारों बार इस संसद में हुआ है । अपने राजनैतिक लाभ के लिये सौ बार संविधान का संशोधन कांग्रेस ने किया है । संविधान संशोधनो पर नजर डालें ।

मंदिर टूटे ए मस्जिद टूटे . गिरजा और मठ भी टूटे हैं . लेकिन  इस टकराहट ने गंगा.जमुनी संस्कृति और धार्मिक सहिष्णुता वाले समाज को भी जन्म दिया है,  उसे आगे बढ़ाया है .


आप का कथन सही है । इस देश ने 30000 मंदिरों को टूटते देखा है लेकिन अपनी गंगा जमुनी संस्कृति के लिये और धार्मिक सहिष्णुता के लिये वह इन सब को याद नहीं करता है । करीब 3000 मस्जिदें जो मंदिरो के अवशेषों से ही बनी है आज भी देखी जा सकती हैं । लेकिन हिंदू पिछले 500 साल से अपने आराध्य श्री राम की जन्मभूमि के लिये खून बहा रहा है तो इसलिये क्योंकी वह पिछले 2500 साल से उसे रामजन्मभूमि मानता आ रहा है । ए एस आई की रिपोर्ट जो कि उच्चन्यायालय के फैसले में एनेक्स है उसको पढ़ने की जहमत उठायें ।

राम मिथकीय पुरुष हैं , न कि ऐतिहासिक ।

ऐसा एक षडयंत्र के तहत जयचंद इतिहासकारों की फौज कहती आयी है । रामजन्मभूमि संघर्ष का इतिहास 500 वर्ष पुराना है लेकिन क्या इसका जिक्र किसी एन सी ई आर टी की किताब या आजादी के बाद लिखी कम्युनिस्ट इतिहासकारों की किताब में मिलता है । नहीं मिलता है । इसीलिये देश चकित है ए एस आई की खोज जिस पर न्यायालय का निर्णय आधारित है । इसके आलावा कोर्ट ने नीचे दी गयी समकालीन इतिहास की किताबो को साक्ष्य माना है जिसमें राममंदिर ध्वंस का जिक्र आता है । जबकि जयचंद कम्युनिस्ट इतिहासकार इन तथ्यों को बड़ी खूबसूरती से छिपा गये ।

1.         बाबरनामा

2.         हुमायंनामा

3.         तुजुक ए जाहांगीरी

4.         तारीख ए बदायुनी

5.         तारीख ए फरिश्ता

6.         आईना ए अकबरी

7.         तकवत ए अकबरी

8.         वाकियात ए मुस्तकी

9.         तरीख ए दाऊदी

10.       तारीख ए शाही

11.       तारीख ए स्लाटिन ए अफगान

12.       स्तोरिया दो मोगोर डेल – विलियम फिन्च तीर्थयात्री का सफरनामा ।

उपरोक्त समकालीन ऐतिहासिक किताबों में मंदिर ध्वंस का जिक्र आता है ।

1.         अथर्ववेद

2.         स्कंद पुराण

3.         न्रसिंह पुराण

4.         वाल्मीकि रामायण

5.         रामचरित मानस

6.         केनोपनिषद

7.         गजेटियर्स आदि

उपरोक्त किताबों में अयोध्या में राममंदिर का जिक्र किया गया है ।

अब रही बात कि राम मिथकीय पुरूष हैं या ऐतिहासिक तो राम के होने के प्रमाण पूरे भारत में और श्रीलंका में मिलते हैं । वह एक ऐसी शख्सीयत हैं जिनकों न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया के दर्जनों देशों में पूजा जाता है । जब राम मंदिर के प्रमाण ए एस आई ने 2500 साल पुराने दिये हैं तो जाहिर है कि राम उससे बहुत पुराने हैं । अगर कम्युनिस्ट इतिहासकार राम को मान लेते तो राममंदिर ध्वंस को  भी मानना पड़ता इसलिये उन्होंने बड़ी चतुराई से राम को ही मिथकीय बना दिया और राम मंदिर को इतिहास से मिटा दिया । कोर्ट का पूरा फैसला पढ़े बिना कोई राय मत बनाईये । ऐतिहासिक और पुरातात्विक साक्ष्यों को अब नकारा नहीं जा सकता है ।

कोर्ट के सामने विवाद भूमी के स्वामित्व निर्धारण का था न कि इसका कि राम कहाँ पैदा हुए थे । वैसे भी पैदाइश स्थल का स्वामित्व से सीधा संबंध नहीं होता ।

सुन्नी वक्फ बोर्ड कोर्ट के सामने यह साबित करने मे असफल रहा कि यह वक्फ बाबर ने बनाया था या किसी और व्यक्ति ने । इसके अलावा सुन्नी वक्फ बोर्ड इस मामले में 1961 में आया जब कि मामला 1949 से चल रहा था । इसलिये कोर्ट ने कानून के अनुसार ही उनकी सूट को टाईमबार्ड घोषित कर दिया । इसमें कोई अवैधानिक बात नहीं है ।

मस्जिद का वह गुंबद जहां पर रामलला विराजमान हैं वही जगह है जहां पर पिछले 2500 साल से किसी महत्वपूर्ण पवित्र देवता के स्थापित होने का प्रमाण ए एस आई ने दिया है । इसके अलावा हिंदू मंदिरध्वंस के बाद से भी उसी जगह को जन्मस्थान मानता आ रहा है । इसी आधार पर अदालत ने बहुमत से अपना फैसला दिया है । इसमें कोई अवैधानिक बात नहीं है ।

कोर्ट को 1949 में दायर शिकायत का फैसला करना था । यह फैसला 1949 की स्थिति पर ही हो सकता था , ना कि 2010 की स्थिति पर ए जैसा कि कोर्ट ने किया है । इस फैसले में सबसे ज्यादा आपत्तिजनक बात यह है कि ये हिंसा , अराजकता और साम्प्रदायिक राजनीति करने वाली आक्रांता ताकतों के राजनीतिक उपद्रव फैलाने के बाहुबल को कानूनी मान्यता देता है ।

बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि आपको हिंदूओं की 500 साल की पीड़ा का जरा भी अनुमान नहीं है । अगर आजभी जरूरत पड़ेगी तो कम

से  कम दस करोड़ हिंदू अयोध्या पहुंच जायेगा । आर एस एस के हस्ताक्षर अभियान में दस कराड़ हिदुओं ने राममंदिर अभियान के लिये हस्ताक्षर किये हैं । कम से कम उन दस करोड़ हिंदुओं की आस्था का तो सम्मान करिये । हिंदू अपने 30000 हजार मंदिरो को भूल गया लेकिन वह अपने तीर्थस्थान रामलला की जन्मभूमि को पिछले 500 साल से नहीं भूला जबकि उसको छिपाने की कम्युनिस्ट इतिहासकरों ने भरसक कोशिश की है । अगर हिंदू 500 साल से रामजन्मभूमि के लिये लड़ रहा है तो अगले 500 साल तक और लड़ सकता है । अदालत ने हिंसा, अराजकता और साम्प्रदायिक राजनीति करने वाली पार्टी के पक्ष को ही सत्य माना है क्योंकि इसके समकालीन ऐतिहासिक साक्ष्य हैं और ए एस आई ने इसकी सैंकड़ों साक्ष्यों के साथ पुष्टि की है जिसे षडयंत्र के तहत जयचंद कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने आजादी के बाद से आज तक भारतीय जनमानस से छिपाया और अब कोर्ट द्वारा साबित हो जाने पर कुर्तक कर रहे हैं जबकि मुस्लिम समुदाय ने बड़े ही शांति और धैर्य का परिचय दिया है । पाखंडी सेकुलर मीडिया और कम्युनिस्ट इतिहासकार ही वास्तव में साम्प्रदायिक हैं जिन्होंने हिंदू जनमानस के साथ आजाद भारत में इतना बड़ा धोखा किया । क्या भारत में अब भी मध्ययुगीन शासन व्यवस्था है ।

कोर्ट ने मान्यता के आधार पर भूमी का बटवारा कर दिया । मालिकाना हक के मामले में मान्यता की दलील को मानकर , उस आधार पर फैसला देना क़ानून और निष्पक्षता के सभी सिद्धांतों के खिलाफ है ।

कोर्ट ने कानून के अनुसार ही बहुमत से फैसला दिया है । शरीयत के अनुसार कब्जे की जमीन पर मस्जिद नहीं बनायी जा सकती है । साक्ष्यों से साबित हो गया है कि मस्जिद के नीचे विभिन्न कालखण्ड में मंदिर रहे हैं । यह कोर्ट ने बहुमत से माना है । इसके आलावा सुन्नी वक्फ बोर्ड उस विवादित ढांचे के मालिकाना हक को भी कोर्ट के सामने साबित नहीं कर पायी इसलिये उसके सूट को बहुमत से कोर्ट ने खारिज कर दिया ।

कोर्ट के फैसले से ऐसा लगता है कि कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ;एएसआईद्ध की रिपोर्ट को अहं महत्त्व दिया है । पर  यह जगजाहिर है कि जिस दौरान याने 5 मार्च 2003 से 5 अगस्त 2003 के मध्य एएसआई ने विवादग्रस्त स्थल की खुदाई की , केंद्र में भाजपानीत गठबंधन की सरकार थी , जिसने इस संस्था के साम्प्रदायिकीकरण में कोई कसर नहीं छोड़ी थी । देश के जाने माने इतिहासकारों ने 28 अप्रैल 2003 को कोर्ट के सामने पेश की गई एएसआई की पहली रिपोर्ट पर ही अपनी आपत्तियां जता दी थीं ।

आप जो कह रहे हैं यह तो किसी मुस्लिम धर्मगुरू ने भी नहीं कहा है । यह कह कर आप देश की शांति व्यवस्था से खेल रहे हैं और एक पक्ष को उकसा रहे हैं और देश को दंगों की आग में झोकने की तैयारी कर रहे हैं ।

रही बात इतिहासकारो की आपत्तियों की तो ये वही जयचंद इतिहासकार हैं जिन्होंने रामजन्मभूमि मंदिर के 500 साल के इतिहास को कभी भारतीय जनमानस के सामने आने नहीं दिया क्योंकि इससे उनकी काली करतूतों की पोल खुल जाती ।

ए एस आई ने विवादित जगह की खुदाई कोर्ट के आदेश से की थी एन डी ए सरकार के कहने से नहीं । (अब आप कोर्ट को साम्प्रदायिक घोषित कर सकते हैं क्योंकि इससे आपके धर्मनिरपेक्षता के पाखंड की दाल नहीं गल रही है ।) ए एस आई ने विवादित जगह के खुदाई के पहले जापान और कनाडा की कंपनियों से संयुक्त रूप से ग्राउन्ड पेनेट्रेटिंग राडार सिस्टम की मदद से पहले विवादित क्षेत्र का सर्वे किया था जिसमें उन्हें उस जगह भारी स्ट्रक्चर के मौजूद होने का प्रमाण मिला था । उसके बाद ए एस आई ने विवादित क्षेत्र में  82  जगह खुदाई की और उन्हें अलग अलग कालखण्ड में तीन मंदिरो के अवशेष मिले थे । सबसे पुराना मंदिर गुप्तकालीन था । ए एस आई की इस रिपोर्ट को ही आधार बना कर कोर्ट ने बहुमत से माना कि उस जगह पर पहले से मंदिर था ।

हाल ही में फैसले के परिप्रेक्ष्य में देश के जाने माने 61 नामचीन इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों ने बयान जारी कर कहा है कि फैसले में कई ऐसे साक्ष्यों का जिक्र नहीं है जो फैसले के विरोध में पेश किये गए थे । फैसले में शामिल तीन जजों में से दो ने कहा है कि बाबरी मस्जिद एक हिंदू ढाँचे के गिराने के बाद बनाई गई । लेकिन ए इन इतिहासकारों का कहना है कि इस मत के विरोध में एएसआई ने जो साक्ष्य प्रस्तुत किये , उन्हें दरकिनार किया गया है । खुदाई में मिलीं जानवरों की हड्डियां और इमारत तैयार करने में इस्तेमाल होने वाली सुर्खी और चूना से मुसलमानों की उपस्थिति साबित होती है और ये भी साबित होता है कि वहाँ मस्जिद से पहले मंदिर था ही नहीं , जैसे सभी तथ्यों को कोर्ट ने इग्नोर कर दिया है । इन इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों के अनुसार एएसआई की उस विवादित रिपोर्ट को फैसले का आधार बनाया गया है जिसमें खुदाई में खम्बे मिलने का उल्लेख है , जबकि खम्बे कभी मिले ही नहीं थे ।

कोर्ट का निर्णय आने के बाद बेशर्म कम्युनिस्ट जयचंद इतिहासकारों को अब भी अपने किये पर कोई पछतावा नहीं है । और वे अपने समर्थन में उल जलूल बाते बक रहे हैं । ऊपर दी गयीं समकालीन एतिहासिक किताबों में दिये गये राममंदिर ध्वंस और ए एस आई की विशद रिपोर्ट से   पूरी तरह से साबित हो जाता है कि वहां पर हजारों साल से मंदिर था और उसको तोड़ कर मस्जिद का निमार्ण किया गया । इन इतिहासकारों ने  हुमांयुनामा, तुजुक ए जाहांगीरी, बाबरनामा, तारीख ए बदायुनी, तारीख ए फरिश्ता, आईना ए अकबरी, तकवत ए अकबरी, वाकियात ए मुस्तकी, तरीख ए दाऊदी में दिये गये तथ्यों को भारतीय जनमानस से छिपाया और अब भी अपनी काली करतूत पर पर्दा डालने के लिये उल जलूल बक रहे हैं और भारत की न्यायपालिका को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं जिससे यह साबित होता है कि उनका भारत की न्यायपालिका में कोई आस्था नहीं रही और वह मध्युगीन अरब के कबीलों की तरह ही बर्ताव कर रहे हैं । सही मायने में ये ही लोग मध्ययुगीन तालिबानी हैं ।

रही बात खुदाई में मिले खंभों की तो तालिबानी इतिहासकारों को पूरा जजमेंट पढ़ना चाहिये जो कि नेट पर भी उपलब्ध है । दिये गये एनेक्सचर में खुदाई में पाये गये खंभो के भी चित्र दिये गये हैं ।

यदि एकबारगी मान भी लिया जाए कि बाबरी मस्जिद के निर्माण में उपयोग की गई सामग्री में किसी हिंदू ढाँचे के अवशेष हैं भी तो इसमें अजूबा क्या है । हमारे देश में अनेक इमारतें हैं , जिनमें मुस्लिम , इंग्लिश , फ्रेंच , हिंदू स्थापत्य कला का उपयोग किया गया है ।

यानी की आप चुपके से यह भी स्वीकार करते हैं कि वहां पर हजारों साल पुराना राममंदिर स्थित था । आप बाबरी मस्जिद कभी नही गये हैं इसलिये ऐसा कह रहे हैं । क्या किसी मस्जिद में कमल के फूल, स्वास्तिक के निशान और देवी देताओं के चित्र भी होते हैं । बाबरी मस्जिद नहीं रही लेकिन उसके चित्र अभी सलामत हैं । इसके अलावा कभी ज्ञानवापी मस्जिद बनारस में जाने का साहस कीजियेगा । उस मस्जिद में भी पौराणिक चित्र और मूर्तियां आज भी लगी हुयीं हैं । इस्लाम में मूर्तिपूजा मना है तब किसी मस्जिद में हिंदू देवी देवताओं की मूर्ति कैसे आ गयी । भारत में आज भी 3000 मस्जिदें ऐसी हैं जो कि किसी न किसी मंदिर के तोड़े हुये भाग से बनी हुयी है । उनमें आपको तमाम हिंदू मंदिरों के भाग मिल जायेंगे । बहुत सी मस्जिदों में तो ऐसे संस्कृत के शिलालेख तक लगे हुये हैं जो किसी देवी देवता की स्तुति में कहे गये हैं । मैं यहां सिर्फ एक ही उदाहरण दे रहा हूं ।

जौनपुर की लाल दरवाजा मस्जिद 1447 ई0 में बनी । इसमें बनारस के पद्मेश्वर मंदिर के 1296 ई0 के एक पत्थर का एक लेख मिला जिससे पता चलता है कि 1447 के पहले ही पद्मेश्वर मंदिर को तोड़कर लाल दरवाजा मस्जिद बनी । लेख इस प्रकार है :

तस्यात्मजः शुचिर्धीरः पद्मसाधुरयं भुविए काश्यां विश्वेश्वर द्वारि हिमाद्रिशिखरोपमं ।

पद्मेश्वरस्य देवस्य प्राकारमकरोत्सुधीःए ज्येष्ठे मासि सिते पक्षे द्वादश्याम्बुधवासरे ।

लिखिते में सदा जाति प्रशास्त्रि प्लववत्सरे संवत् 1353 ।

इस तरह के सैकड़ों सैकड़ों उदाहरण हैं । जिनके न सिर्फ पुरातात्विक साक्ष्य मौजूद है बल्कि समकालीन अंग्रेज और मुस्लिम इतिहासकारों ने भी उनका जिक्र किया है पर साम्यवादी इतिहासकारों को यह सब दिखाई नहीं देता । और दिखाई भी क्यों देगा जिन्होंने जिन्ना का पक्ष लिया था पाकिस्तान निमार्ण के लिये और जो 1962 में चीनी हमले को भारत सरकार द्वारा फैलायी गयी अफवाह कहते हों ऐसे लोगों के लिये राष्ट्रहित में सोचना एक भंयकर पाप है ।

कोर्ट ने एक सैकड़ों साल से जीवित खड़ी ऐतिहासिक इमारत को तरजीह न देकर , 1992 के बाबरी मस्जिद को ढहाने के आपराधिक कृत्य को ही मान्यता देने जैसा काम किया है ।

कोर्ट ने किसी आपराधिक कृत्य को मान्यता नहीं दी है बल्कि 500 साल से षडयंत्र के तहत छिपाये गये सत्य को मान्यता दी है ।

बड़ा दुख होता है देख कर कि अधिक्तर जयचंद कम्युनिस्ट इतिहासकार हिंदू हैं । इन्हें देश के साथ गद्दारी करते कभी शर्म महसूस नहीं हुयी । इनकी सारी धर्मनिरपेक्षता हिंदू धर्म को गरियाने, उसके इतिहास को दबाने, छिपाने, कुलचने और झूठा साबित करने में लगी हुयी है । ये वही लोग हैं जो आज औरंगजेब को महान सेकुलर शासक कहते हैं, जिसने सबसे ज्यादा हिंदू मंदिरों को तोड़ा । इनकी धर्मनिरपेक्षता हमेशा से मुगलों और गांधी नेहरू परिवार के साथ रही है । इतिहास के साथ इतना बड़ा खिलवाड़ देश और देशवासियों के प्रति एक बहुत बड़ा गंभीर अपराध है लेकिन क्या करें इस देश में देशभक्तों से ज्यादा देशद्रोहियों की तादत हमेशा से ज्यादा रही है नहीं तो भारत वर्ष सदियों गुलामी की बेड़ियों में न जकड़ा रहता । आज भी ये जयचंद इतिहासकार एक विदेशी षडयंत्र के तहत देश के विभाजन में लगे हुये हैं ।

मुझे लगता है कि ऊपर दिये तथ्यों से आपके मन में जयचंद कम्युनिस्ट इतिहासकारों द्वारा फैलाये गये कलुषित इतिहास की मोटी गर्द कुछ हद तक साफ हुयी होगी । जय श्री राम ।

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